भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)

दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी

प्रेस विज्ञप्ति

11 जून 2013

वीसी शुक्ल की मौत उत्पीड़ितों की हिंसा का नतीजा है!

वी.सी. शुक्ल की मौत को उत्पीड़ितों की तरफ से उत्पीड़कों पर की गई हिंसा के नतीजे के रूप में देखना चाहिए। पहले सलवा जुड़ूम, और 2009 से आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से शोषक राजसत्ता ने जनता पर जो कहर बरपाया उसकी एक प्रतिक्रिया भर थी 25 मई की घटना। दरअसल उस दिन झीरमघाटी में पीएलजीए द्वारा की गई कार्रवाई को समझने के लिए बस्तर के कम से कम पिछले 10 सालों से जारी घटनाक्रम पर नजर डालना जरूरी है। 2003 मंे पहली बार छग की कांग्रेस सरकार ने भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार से सांठगांठ कर क्रांतिकारी आंदोलन के दमन के लिए अर्द्धसैनिक बलों को उतारा था। बहुत से लोगों को अब याद भी नहीं होगा, उसी समय कोईलीबेड़ा के पास स्थित जीरमतराई में दो निर्दोष ग्रामीणों को केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बलों ने गोली मार दी थी। यह अर्द्धसैनिक बलों द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ की पहली घटना थी। उसके बाद से इन दस सालों में केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए सशस्त्र बलों और पाले-पोसे गए सलवा जुडूमी गुण्डों ने कितने गांवों में नरसंहार मचाया, कितने गांवों को जलाया, कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार किया, इसे दोहराने की जरूरत नहीं है। कोतरापाल, मनकेली, पोंजेर, कंचाल, सिंगारम, सिंगनमडुगु, ताकिलोड़, गोम्पाड़ से लेकर सारकिनगुड़ा और एड्समेट्टा तक.. इनमें से किसी एक भी गांव की बेकसूर जनता पर की गई सरकारी हिंसा की तुलना में झीरमघाटी में हुई हिंसा कम ही है। अपनी आंखों के सामने ही अपना घर जलकर राख हो जाना क्या होता है, अपनी आंखों के सामने अपनी बेटी के साथ अपमान क्या होता है, अपने जवान बेटे का सिर कलम किया जाना क्या होता है... यह सब बस्तर के लोगों से सुनकर ही समझा जा सकता है। अपना घर जलाए जाने पर रोया जाए, या अपने पति के मारे जाने पर रोए, या फिर अपने साथ हुई पाशविकता पर रोए - किस-किस पर रोना चाहिए यह समझ पाने की स्थिति क्या होती है बस्तर की महिलाओं से बात करने पर ही मालूम हो सकती है। हिंसा के जवाब में हिंसा नहीं की जा रही है यहां, जैसा कि नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों से लेकर कार्पोरेटों के दलालों तक तरह-तरह के लोग चिल्ला रहे हैं। राजसत्ता द्वारा की जा रही बेइंतहा और बर्बरतापूर्ण हिंसा से खुद को बचाने के लिए ही जवाबी हिंसा अनिवार्य हो गई। अगर उत्पीड़ितों की ओर से यह प्रतिरोध नहीं होता, यह हिंसा नहीं होती तो अब तक बस्तरिया आदिवासियों का अस्तित्व बहुत भारी खतरे में पड़ चुका होता। इसलिए, इस हिंसा के लिए खुद सरकारों की दमनकारी और शोषणकारी नीतियां जिम्मेदार है। और इसमें भाजपा और कांग्रेस समान रूप से भागीदार हैं।

महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम का एक खूंखार चेहरा था, लेकिन उसके पीछे कांग्रेस और भाजपा दोनों की मिलीभगत थी। चाहे वी.सी. शुक्ल हो या नंदकुमार पटेल, सभी नेताओं के हाथ छत्तीसगढ़ के हजारों आदिवासियों के खून से सने हैं। सदियों से दबी-कुचली जन समुदायों की ओर से, उनकी सेना जन मुक्ति छापामार सेना की ओर से हुई जवाबी हिंसा की इस भारी कार्रवाई में कुछ अनावश्यक मौतें भी हुईं। इसके लिए हमने पहले भी खेद प्रकट किया है। ऐसी घटनाओं से हम सबक लेंगे और अपने बलों को तथा जनता को शिक्षित करते रहेंगे। लेकिन इस आड़ में जनप्रतिरोध की इस कार्रवाई के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगाना नाइंसाफी है। प्रतिरोध जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है।

 (गुड्सा उसेण्डी)

प्रवक्ता

दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)